SHRI HANS JI MAHARAJ
an excerpt from the book Hansyog Prakash
बड़े आनंद से समस्त सज्जनों को विदित कराते हैं कि जीवन का एकमात्र लक्ष्य परमपिता परमात्मा को पहचानना तथा भगवद-दर्शन ही है, क्योंकि श्रुति-स्मृति, उपनिषद, गीतादि धर्मग्रंथ तथा ऋषि-महर्षि, संत-महात्मा इसके लिए मुक्त कंठ से कह रहे हैं। श्रुति का भी वचन है ‘ऋतेज्ञानान्न मुक्तिः’, भगवान् ने भी कहा है – ‘सर्वकर्माखिलं पार्थ ज्ञानेपरिसमाप्यते’, हे पार्थ! सब प्रकार से समस्त कार्यों पर पर्यवसान ज्ञान में होता है। फिर भगवान इस प्रकार कहते हैं ‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’, इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र सचमुच कुछ और नहीं है। जिस प्रकार प्रज्ज्वलित की हुई अग्नि ईंधन को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार हे अर्जुन! यह ज्ञान रूपी अग्नि सब कर्मों को (शुभ-अशुभ बन्धनों को) जला डालती है, जिस ज्ञान को पाकर हे पाण्डव ! फिर तुझे ऐसा मोह नहीं होगा और जिस प्रकार के योग से समस्त प्राणियों को तू अपने में और मुझ में भी देखेगा। ”तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः” ध्यान में रख की प्रणिपात से, निष्कपट भाव से, सेवा से प्रसन्न करने पर तत्त्ववेत्ता ज्ञानी पुरुष तुझे ज्ञान का उपदेश करेंगे। यह तत्त्वज्ञान बिना मन की एकाग्रता के नहीं होता है। गीता में कहा है –
चञ्चलम हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥
हे कृष्ण! यह मन बड़ा ही चंचल स्वभाव वाला, हठीला, बलवान और दृढ है। वायु की गठरी बांधने के समान इसका निग्रह करना मुझे अत्यंत दुष्कर दिखता है। भगवान ने भी कहा है ‘हे महाबाहो अर्जुन! इसमें संदेह नहीं कि मन बड़ा चंचल है और उसका निग्रह करना कठिन है, परन्तु हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य से इसका संचालन एवं नियंत्रण किया जा सकता है।’ योगसूत्र में लिखा है ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है और फिर भगवान ने गीता में कहा है ‘तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक: कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।’ हे अर्जुन! तपस्वी, ज्ञानी, कर्मयोगी से भी योगाभ्यासी श्रेष्ठ है; इसलिए तू योग कर ‘यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव! जिसको संन्यास ऐसा कहते हैं, उसी को तू योग जान, क्योंकि संकल्पों को न त्यागने वाला कोई भी पुरुष योगी नहीं होता। इसी रहस्य को बतलाने के लिए मैंने इस संसार रूपी बाग में वेदादि नाना ग्रन्थ रूपी पुष्पों से केशर रूपी सार निकालकर इस छोटी-सी पुस्तक रूपी छत्ते में संग्रह किया है। जिस प्रकार कुछ काल पाकर केशर भी मधु रूप में परिणित हो जाता है इसी प्रकार मन को रोकने से आप भी तद्रूप हो जायेंगे। जैसे चतुर वैद्य अपनी बूटी द्वारा पारे को मार देता है उसी तरह सद्गुरु रूपी विद्या अपनी नाम रूपी बूटी से मन रूपी पारे को मार देते हैं। जिस प्रकार कीट भृंगी के नाद को सुनकर भृंगी रूप हो जाता है उसी तरह आप भी इस पुस्तक रूपी नाद को भृंगी रूपी सद्गुरु द्वारा श्रवण, मनन, निदिध्यासन करेंगे तो आप भी तद्रूप हो जायेंगे।
श्री हंस जयंती के शुभ अवसर पर
जनकल्याण समारोह
दिनांक : 16 व 17 नवंबर, 2024 (शनिवार व रविवार)
समय: सायं 6 बजे से रात्रि 9 बजे तक
स्थान: ऋषिकुल कॉलेज मैदान, ज्वालापुर रोड, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
संपर्क सूत्र: 8800291788, 8373917826, ईमेल: contact@hanslok.org
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